जाने कितने झूले थे फांसी पर,
कितनों ने गोली खाई थी ।
पर झूठ देश से बोला कोरा,
कि चरखे से आजादी आई थी ।।
चरखा हरदम खामोश रहा,
और अंत देश को बांट दिया ।
लाखों बेघर, लाखो मर गये,
जब गांधी ने बंदरबांट किया ।।
जिन्ना के हिस्से पाक गया,
नेहरू को हिन्दुस्तान मिला ।
जो जान लुटा गये भारत पर,
उन्हें न कुछ सम्मान मिला ।।
जो देश के लिए जिये,
मरे और फांसी के फंदे पर झूल गये ।
हमें गांधी नेहरू तो याद रहे,
पर अमर पुरोधा हम भूल गए ।।
***********************************
भले ही गांधी की धोती , तेरे खातिर गहना था ..
मुझे दिखादो बस वो फंदा, जिसे भगत सिंह ने पहना था ...
चलो मान लिया कि चरखे ने ही, उन सारे अंग्रेजों को पटका था ...
पर हमको देदो वो पावन रस्सी , जिस पर मेरा बिस्मिल लटका था..
हम मान रहे कि नेहरू ने ही, भारत आज़ाद कराया था ...
पर हमें सुना दो फिर वो धुन, जिसे राजगुरु ने गाया था ..
चलो आजादी के महायुद्ध में, सारा कार्य तुम्हारा था ..
पर हमें दिला दो वो अंतिम गोली , जिसे शेखर ने खुद को मारा था
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एक यहूदी लोककथा है।
एक फकीर किसी बंजारे की सेवा से बहुत प्रसन्न हो गया। और उस बंजारे को उसने एक गधा भेंट किया। बंजारा बड़ा प्रसन्न था गधे के साथ, अब उसे पैदलयात्रा न करनी पड़ती। सामान भी अपने कंधे पर न ढोना पड़ता। और गधा बड़ा स्वामिभक्त था।
लेकिन एक यात्रा पर गधा अचानक बीमार पड़ा और मर गया। दुख में उसने उसकी कब्र बनायी, और उस कब्र के पास बैठकर रो रहा था कि एक राहगीर गुजरा।
उस राहगीर ने सोचा कि जरूर किसी महान आत्मा की मृत्यु हो गयी। तो वह भी झुका कब्र के पास। इसके पहले कि बंजारा कुछ कहे, उसने कुछ रुपये कब्र पर चढ़ाये। बंजारे को हंसी भी आयी। लेकिन तब उस भले आदमी की श्रद्धा को तोड़ना भी ठीक मालूम न पड़ा। और फिर उसे यह भी समझ में आया कि यह तो बड़ा उपयोगी व्यवसाय हो गया।
फिर वह उसी कब्र के पास बैठकर रोता, यही उसका धंधा हो गया। लोग आते, गांव-गांव खबर फैल गयी कि किसी महान आत्मा की मृत्यु हो गयी; और गधे की कब्र किसी पहुंचे हुए फकीर की समाधि बन गयी। ऐसे वर्ष बीते, वह बंजारा बहुत धनी हो गया।
फिर एक दिन जिस सूफी साधु ने उसे यह गधा भेंट किया था वह भी यात्रा पर था और उस गांव के करीब से गुजरा। उसे भी लोगों ने कहा, एक महान आत्मा की कब्र है यहां, दर्शन किये बिना मत चले जाना। वह गया। देखा वहां उसने इस बंजारे को बैठा, तो उसने कहा, अरे! किसकी कब्र है यह? और तू यहां बैठा क्यों रो रहा है? उस बंजारे ने कहा, अब आप से क्या छिपाना, जो गधा आपने दिया था, उसी की कब्र है। जीते जी भी उसने बड़ा साथ दिया, मरकर और भी ज्यादा साथ दे रहा है। सुनते ही फकीर खिलखिलाकर हंसने लगा। उस बंजारे ने पूछा, आप हंसे क्यों? फकीर ने कहा, तुझे पता है, जिस गांव में मैं रहता हूं वहां भी एक पहुंचे हुए महात्मा की कब्र है। उसी से तो मेरा काम चलता है। वह किस महात्मा की कब्र है, तुझे मालूम? उसने कहा मुझे कैसे मालूम, आप बतायें। उसने कहा, वह इसी गधे की मां की कब्र है।
धर्म के नाम पर अंधविश्वासों का बड़ा विस्तार है। धर्म के नाम पर थोथे, व्यर्थ के क्रियाकांडों, यज्ञों, हवनों का बड़ा विस्तार है। फिर जो चल पड़ी बात, उसे हटाना मुश्किल हो जाता है। जो बात लोगों के मन में बैठ गयी, उसे मिटाना मुश्किल हो जाता है। और इसे बिना मिटाये वास्तविक धर्म का कोई जन्म नहीं हो सकता। अंधविश्वास न हटे, तो धर्म का दीया जलेगा ही नहीं। अंधविश्वास उसे जलने ही न देगा |
-ओशो
जिनसूत्र--(भाग--2) प्रवचन--3
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कितनों ने गोली खाई थी ।
पर झूठ देश से बोला कोरा,
कि चरखे से आजादी आई थी ।।
चरखा हरदम खामोश रहा,
और अंत देश को बांट दिया ।
लाखों बेघर, लाखो मर गये,
जब गांधी ने बंदरबांट किया ।।
जिन्ना के हिस्से पाक गया,
नेहरू को हिन्दुस्तान मिला ।
जो जान लुटा गये भारत पर,
उन्हें न कुछ सम्मान मिला ।।
जो देश के लिए जिये,
मरे और फांसी के फंदे पर झूल गये ।
हमें गांधी नेहरू तो याद रहे,
पर अमर पुरोधा हम भूल गए ।।
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भले ही गांधी की धोती , तेरे खातिर गहना था ..
मुझे दिखादो बस वो फंदा, जिसे भगत सिंह ने पहना था ...
चलो मान लिया कि चरखे ने ही, उन सारे अंग्रेजों को पटका था ...
पर हमको देदो वो पावन रस्सी , जिस पर मेरा बिस्मिल लटका था..
हम मान रहे कि नेहरू ने ही, भारत आज़ाद कराया था ...
पर हमें सुना दो फिर वो धुन, जिसे राजगुरु ने गाया था ..
चलो आजादी के महायुद्ध में, सारा कार्य तुम्हारा था ..
पर हमें दिला दो वो अंतिम गोली , जिसे शेखर ने खुद को मारा था
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एक यहूदी लोककथा है।
एक फकीर किसी बंजारे की सेवा से बहुत प्रसन्न हो गया। और उस बंजारे को उसने एक गधा भेंट किया। बंजारा बड़ा प्रसन्न था गधे के साथ, अब उसे पैदलयात्रा न करनी पड़ती। सामान भी अपने कंधे पर न ढोना पड़ता। और गधा बड़ा स्वामिभक्त था।
लेकिन एक यात्रा पर गधा अचानक बीमार पड़ा और मर गया। दुख में उसने उसकी कब्र बनायी, और उस कब्र के पास बैठकर रो रहा था कि एक राहगीर गुजरा।
उस राहगीर ने सोचा कि जरूर किसी महान आत्मा की मृत्यु हो गयी। तो वह भी झुका कब्र के पास। इसके पहले कि बंजारा कुछ कहे, उसने कुछ रुपये कब्र पर चढ़ाये। बंजारे को हंसी भी आयी। लेकिन तब उस भले आदमी की श्रद्धा को तोड़ना भी ठीक मालूम न पड़ा। और फिर उसे यह भी समझ में आया कि यह तो बड़ा उपयोगी व्यवसाय हो गया।
फिर वह उसी कब्र के पास बैठकर रोता, यही उसका धंधा हो गया। लोग आते, गांव-गांव खबर फैल गयी कि किसी महान आत्मा की मृत्यु हो गयी; और गधे की कब्र किसी पहुंचे हुए फकीर की समाधि बन गयी। ऐसे वर्ष बीते, वह बंजारा बहुत धनी हो गया।
फिर एक दिन जिस सूफी साधु ने उसे यह गधा भेंट किया था वह भी यात्रा पर था और उस गांव के करीब से गुजरा। उसे भी लोगों ने कहा, एक महान आत्मा की कब्र है यहां, दर्शन किये बिना मत चले जाना। वह गया। देखा वहां उसने इस बंजारे को बैठा, तो उसने कहा, अरे! किसकी कब्र है यह? और तू यहां बैठा क्यों रो रहा है? उस बंजारे ने कहा, अब आप से क्या छिपाना, जो गधा आपने दिया था, उसी की कब्र है। जीते जी भी उसने बड़ा साथ दिया, मरकर और भी ज्यादा साथ दे रहा है। सुनते ही फकीर खिलखिलाकर हंसने लगा। उस बंजारे ने पूछा, आप हंसे क्यों? फकीर ने कहा, तुझे पता है, जिस गांव में मैं रहता हूं वहां भी एक पहुंचे हुए महात्मा की कब्र है। उसी से तो मेरा काम चलता है। वह किस महात्मा की कब्र है, तुझे मालूम? उसने कहा मुझे कैसे मालूम, आप बतायें। उसने कहा, वह इसी गधे की मां की कब्र है।
धर्म के नाम पर अंधविश्वासों का बड़ा विस्तार है। धर्म के नाम पर थोथे, व्यर्थ के क्रियाकांडों, यज्ञों, हवनों का बड़ा विस्तार है। फिर जो चल पड़ी बात, उसे हटाना मुश्किल हो जाता है। जो बात लोगों के मन में बैठ गयी, उसे मिटाना मुश्किल हो जाता है। और इसे बिना मिटाये वास्तविक धर्म का कोई जन्म नहीं हो सकता। अंधविश्वास न हटे, तो धर्म का दीया जलेगा ही नहीं। अंधविश्वास उसे जलने ही न देगा |
-ओशो
जिनसूत्र--(भाग--2) प्रवचन--3
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